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कविता

आजु हौं एक एक करि टरिहौं

सूरदास


आजु हौं एक-एक करि टरिहौं।
के तुमहीं के हमहीं, माधौ, अपुने भरोसे लरिहौं।
हौं तौ पतित सात पीढ़िन कौ, पतिते ह्वै निस्तरिहौं।
अब हौं उघरि नच्यो चाहत हौं, तुम्हैं बिरद बिन करिहौं।
कत अपनी परतीति नसावत, मैं पायौ हरि हीरा।
सूर पतित तबहीं उठिहै, प्रभु, जब हँसि दैहौ बीरा।।


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